छुट्टी की किरण



कक्षा 7 में पढ़ता था । 4 बजे छुट्टी होती थी । उस ज़माने में  किसी के भी पास घड़ी नही होती थी । आखरी पीरियड हिंदी का होता था , अब हिंदी तो आती है, पढ़ना क्या ? फिर भी क्लास तो लगती  थी , उबाऊ चालीस मिनट की ।  वो चालीस मिनट बहुत भारी महसूस होते थे, जैसे कोई ग़मों से भरी रात , खत्म ही नही होती थी ।

एक दिन आखरी क्लास चल रही थी, यूँही  ऊपर नज़र डाली तो देखा रोशनदान से सूरज की किरण का पट्टा दीवार पे आया हुआ था । थोड़ी देर में देखा तो वो किरण का पट्टा थोड़ा ऊपर उठ गया था, फिर थोड़ा और ऊपर ।

तभी बालक मन में एक आविष्कार जागा । उठते रोशनी के पट्टे पर नज़रें गड़ा दी, और शुरू हुआ उस पल के इंतज़ार का । आखिर ,घंटा बजा, क्लास खत्म हुई , सब बच्चे शोर मचाते हुए बाहर निकल के घर की तरफ हो लिए । ...

......मैं थोड़ी देर बाद निकला।

दूसरे दिन, मैने क्लास में घोषणा कर दी । मैं आखरी क्लास में भगवान की प्रार्थना में जैसे ही हाथ जोड़ूंगा ,बिसेसर छुट्टी का घंटा  बज उठेगा  । सब बच्चे इंतज़ार करने लगे,  एक नज़र हिंदी वाले  माटसाब पर और दूसरी मुझ पर ।

ठीक समय पर मैंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कि और छुट्टी का घंटा बज उठा। मेरी नंगाझोली ली गयी कि कही मेरे पास कोई घड़ी तो नही । सब यही बोले कि तुक्का है ,अंदाज़ लगाया बस।

फिर दूसरे, तीसरे दिन भी इधर मै प्रार्थना करता ,उधर आधा  मिनट के अंदर छुट्टी का घंटा बज उठता था ।

चौथे दिन मुझे घेर लिया सबने , बोले आज तो राज़ खोल ही दो । मैंने कहा ठीक है, छुट्टी होने के बाद राज खुल जाएगा । फिर मेरी प्रार्थना सुनी गई और छुट्टी हो गई । पर कोई क्लास से नही निकला ।

मैंने गोगिआ पाशा के अंदाज़ में गीली गीली कहा और रोशन दान से आती धूप के पट्टे की तरफ इशारा किया ।किसी को कुछ समझ नही आया ।

मैंने कहा वो देखो पेंसिल का निशान,जैसे ही धूप के पट्टे का एक कोना उस निशान को छूता है, पक्का समझो, चार बज गए । सब बच्चे एकदम खुश ।

कल,  45 साल बाद उसी स्कूल को देखने गया, पूरा चक्कर मार कर उस क्लास रूम में भी गया, तो बरबस दीवार पर नज़र चली गयी, और नज़रें उस पेंसिल के निशान को ढूंढने लगीं ।

स्कूल ,क्लास रूम, रोशनदान सब वहीं था ।  धूप का पट्टा आज भी वैसा ही उन दिनों की तरह दीवार पर ज़रूर उतरता होगा , बस नही थे तो वो बिसेसर, घंटा, साथी, माटसाब और..... वो भोला बचपन ।

मेरे हाथ अनजाने में ही प्रार्थना में उठ गए ।

आंखें भीग चुकी थीं , यूँ ही घड़ी देखी ....चार बजे थे । 

निरंजन धुलेकर
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